Showing posts with label Gospel (Hindi Version). Show all posts
Showing posts with label Gospel (Hindi Version). Show all posts

Wednesday

पवित्र आत्मा का बपतिस्मा क्या है?

0 comments
उत्तर: पवित्र आत्मा के बपतिस्मे को ऐसे परिभाषित किया जा सकता है कि वह कार्य जिसके द्वारा परमेश्वर का आत्मा उद्धार के समय विश्वासी को मसीह और अन्य विश्वासीयों के साथ मसीह की देह में जोड़ देता है। बाईबल में पहला कुरिन्थियों 12:12-13 पवित्र आत्मा के बपतिस्में के बारे में प्रमुख अंश है ‘‘क्योंकि हम सब ने क्या यहूदी हो क्या युनानी, क्या दास हो, क्या स्वतन्त्र, एक ही आत्मा के द्वारा एक देह हाने के लिए बपतिस्मा लिया, और हम सब को एक ही आत्मा पिलाया गया’’ (1 कुरिन्थियों 12:13)। जबकि रोमियो 6:1-4 पवित्र आत्मा के बारे में विशेष रूप से बात नहीं करता, परन्तु परमेश्वर में विश्वासी का क्या स्थान है, उसे 1 कुरिन्थियों वाले अंश के समान जैसी भाषा में वर्णन करता है : तो हम क्या कहें? क्या हम पाप करते रहे कि अनुग्रह बहुत हो? कदापि नहीं । हम जब पाप के लिए मर गए तो फिर आगे को उसने कैसे जीवन बिताएँ? क्या तुम नहीं जानते कि हम सब जिन्होंने यीशु मसीह का बपतिस्मा लिया, उसकी मृत्यु का बपतिस्मा लिया ? अत: उस मृत्यु का बपतिस्मा पाने से हम उसके साथ गाडे गए, ताकि जैसे मसीह पिता की महिमा के द्वारा मरे हुओ में से जिलाया गया, वैसे ही हम भी नए जीवन की सी चाल चले’’ ।

आगे दिये गए तथ्य पवित्र आत्मा के बपतिस्मा के बारे में हमारी समझ को ठोस बनाने में के लिए आवश्यक है : पहले, 1 कुरिन्थियों 12:13 स्पष्टता से ब्यान करता है कि हम सब का बपतिस्मा हुआ, जैसे कि सब को एक ही आत्मा पिलाया गया (आत्मा का भीतर रहना)। दुसरा कही पर भी धर्मशास्त्र में बपतिस्मा को आत्मा के साथ, में, या द्वारा बपतिस्मा लेने को या किसी भी अर्थ से पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाने की कोशिश करने के लिए नहीं कहा गया । यह इस बात का संकेत है कि सब विश्वासीयों को प्राय: यह अनुभव हुआ होता है। तीसरा, इफिसियों 4:5 आत्मा के बपतिस्मे के बारे में बात करता प्रतीत होता है। यदि ऐसा है, तो आत्मा का बपतिस्मा प्रत्येक विश्वासी के सच्चाई है, जैसे कि ‘‘एक विश्वास’’ और ‘‘एक पिता’’ है।

निष्कर्ष में, पवित्र आत्मा का बपतिस्मा दो चीजे करता है, यह मसीह की देह में हमें जोड़ता है, और यह हमारे मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाए जाने को वास्तविक बनाता है (रोमियो 6:4)। जैसा कि 1 कुरिन्थियों 12:13 के सन्दर्भ में ब्यान किया गया है हमें अपने आत्मिक वरदानों का उपयोग इसलिए करना चाहिए जिससे देह ठीक रीति से कार्य करती रहे । इफिसियो 4:5 के सन्दर्भ में लिखा है एक ही आत्मा के बपतिस्मे को अनुभव करना कलिसिया की एकता के आधार को बनाता है । मसीह की मृत्यु, गाड़े जाने और पुनरूत्थान में आत्मा के बपतिस्मा के द्वारा सम्मिलित होना हमारे भीतर रहने वाले पाप की शक्ति से अलग होना और हमारे नए जीवन की सी चाल चलने के आधार को स्थापित करता है (रोमियो 6: 1-10, कुलुसियो 2:12) ।

हम पवित्र आत्मा को कब/कैसे प्राप्त करते हैं?

0 comments
उत्तर: पौलुस प्रेरित ने स्पष्टता से सिखाया कि हम पवित्र आत्मा को उसी समय पा लेते है जिस समय हम यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करते है। पहला कुरिन्थियों 12:13 बताता है कि, ‘‘क्योंकि हम सबने क्या यहूदी हो क्या युनानी, क्या दास हो, क्या स्वतन्त्र., एक ही आत्मा के द्वारा एक देह होने के लिए बपतिस्मा लिया, और हम सब को एक ही आत्मा पिलाया गया’’। रोमियो 8:9 हमें बताता है कि यदि किसी व्यक्ति में पवित्र आत्मा नहीं बसता है, तो वह मसीह का जन नहीं, ‘‘परन्तु जब कि परमेश्वर का आत्मा तुम में बसता है, तो तुम शारीरिक दशा में नहीं परन्तु आत्मिक दशा में हो। यदि किसी में मसीह का आत्मा नही तो वह उसका जन नहीं’’। इफिसियो 1:13-14 हमें सिखाता है कि पवित्र आत्मा उन सब के लिए उद्धार की छाप है जो विश्वास करते है उद्धार की छाप है ‘‘और उसी में तुम भी, जब तमु ने सत्य का वचन सुना जो तुम्हारे उद्धार का सुसमाचार है और जिस पर तुम ने विश्वास किया, प्रतिज्ञा किए हुए पवित्र आत्मा की छाप लगी । वह उसके मोल लिए हुओ के छुटकारे के लिए हमारी मीरास का बयाना है, कि उसकी महिमा की स्तुति है।

यह अंश हमें स्पष्ट करते है कि पवित्र आत्मा उद्धार पाने के समय मिलता है । पौलुस यह नहीं कह सकता था कि हमें सबको एक ही आत्मा का बपतिस्मा मिला और हम सबको एक ही आत्मा पिलाया गया यदि सब कुरिन्थियों के विश्वासीयों को पवित्र आत्मा ना मिला होता । रोमियो 8:9 और भी दृढता से बयान करता है, कि जिस में आत्मा नहीं बसता, वह मसीह का जन नही है। इसलिए, आत्मा का होना उद्धार के होने की पहचान का तत्व है। आगे, पवित्र आत्मा ‘‘उद्धार की छाप’’ नहीं हो सकता है (इफिसियों 1: 13-14) यदि वह उद्धार पाने के समय नहीं मिलता है। बहुत से धर्म शास्त्र के वचन यह बहुतायत से स्पष्ट करते है कि जब हम मसीह को उद्धारकर्ता ग्रहण करते है उसी समय हमारा उद्धार सुरक्षित हो जाता है।

यह चर्चा विवादस्पद है क्योकि पवित्र आत्मा की सेवकाईयों को अक्सर उलझा दिया जाता है। आत्मा का मिलना/ भीतर रहना उद्धार मिलने के समय होता है। आत्मा से परिपूर्ण होना मसीह जीवन में चलती रहने वाली प्रक्रिया है। हम मानते है कि आत्मा का बपतिस्मा उद्धार प्राप्त करने के समय होता है, कुछ मसीही लोग ऐसा नहीं मानते है । इसके परिणामस्वरूप कभी कभी आत्मा के बपतिस्मा को आत्मा का उद्धार के बाद मिलना जैसी असंगत अथवा उलझाने वाली शिक्षा को उत्पन करती है ।

निष्कर्ष में, हम पवित्र आत्मा कैसे प्राप्त करते हैं? हम पवित्र आत्मा को बस प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करके प्राप्त करते है (यूहन्ना 3:5-16) हम पवित्र आत्मा को कब प्राप्त करते हैं? जिस पल हम विश्वास करते है उसी समय पवित्र आत्मा का हम में स्थाई रूप से वास हो जाता है।

पवित्र आत्मा कौन है?

0 comments
उत्तर: पवित्र आत्मा की पहचान के बारे में कई गलत धारणायें हैं । कुछ लोग पवित्र आत्मा को एक रहस्यात्मक शक्ति के रूप में देखते हैं । अन्य पवित्र आत्मा को उस निर्वैयक्तिक शक्ति के रूप में देखते हैं जो परमेश्वर मसीह के अनुयायियों को उपलब्ध कराता है । पवित्र आत्मा की पहचान के बारे में बाइबल क्या कहती है? साधारणतया ऐसे रखें-बाइबल कहती है कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है । बाइबल हमें यह भी बताती है कि पवित्र आत्मा एक व्यक्ति है, एक अस्तित्व जिसमें बुद्धि, भावनाऐं तथा इच्छा है ।

यह वास्तविकता कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है कई आलेखों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिसमें कि प्रेरितों के काम ५:३-४ भी सम्मिलित है । इस पद में पतरस हनन्याह का विरोध करता है कि उसने पवित्र आत्मा से झूठ क्यों बोला तथा उसे बताता है कि उसने 'मनुष्यों से नहीं परन्तु परमेश्वर से झूठ बोला ।" यह एक स्पष्ट घोषणा है कि पवित्र आत्मा से झूठ बोलना परमेश्वर से झूठ बोलना है । हम इसलिए भी जान सकते हैं कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है क्योंकि उसमें परमेश्वर की विशेषतायें या चरित्रिक गुण है । उदाहरण के लिए यह वास्तविकता है कि पवित्र आत्मा सर्वव्यापी है भजन संहिता १३९:७-८ में देखने को मिलता है, " मैं तेरे आत्मा से भागकर किधर जाऊँ? वा तेरे सामने से किधर भागूँ? यदि मैं आकाश पर चढ़ू, तो तू वहाँ है ! यदि मैं अपना बिछौना आलोक में बिछाऊँ तो वहॉ भी तू है !" फिर १कुरिन्थियों २:१० में हम पवित्र आत्मा की सर्वज्ञता की विशेषता देखते हैं । "परन्तु परमेश्वर ने उनको अपने आत्मा के द्वारा हम पर प्रगट किया; क्योंकि आत्मा सब बातें, वरन परमेश्वर की गूढ़ बातें भी जांचता है । मनुष्य में से कौन किसी मनुष्य की बातें जानता है, केवल मनुष्य की आत्मा जो उस में है? वैसा ही परमेश्वर की बातें भी कोई नहीं जानता, केवल परमेश्वर का आत्मा ।"

हम यह जान सकते हैं कि पवित्र आत्मा निश्चय ही एक व्यक्ति है क्योंकि उसमें बुद्धि, भावनाऐं तथा इच्छा है । पवित्र आत्मा सोचता है तथा जानता है (१कुरिन्थियों २:१०) । पवित्र आत्मा दुखी हो सकता है (इफिसियों ४:३०) । आत्मा हमारे लिए मध्यस्थता करता है (रोमियो ८:२६-२७)। पवित्र आत्मा अपनी इच्छानुसार निणर्य लेता है (१कुरिन्थियों १२:७-११) । पवित्र आत्मा परमेश्वर है, त्रिएकत्व का तीसरा "व्यक्ति" । परमेश्वर के रूप में, पवित्र आत्मा एक सहायक के रूप में सही कार्य कर सकता है जैसा यीशु ने वचन दिया था (यूहन्ना १४:१६,२६;१५:२६)।

क्या यीशु अपनी मृत्यु और पूनरूत्थान के बीच में नरक गए थे ?

0 comments

उत्तर: इस प्रश्न के विषय में बहुत सारी उलझन है। यह विचार मुख्यत: प्रेरितों के ‌‌‌विश्वास से आता है जो अभिव्यक्त करता कि ‘‘वह नरक में गए’’। कुछ धर्मशास्त्र के वचन भी है जो यीशु के ‘‘नरक’’ में वर्णन करते हैं, परंतु यह निर्भर करता है कि इन वचनों को कैसे अनुवाद किए जाता है। इस मुद्दे का अध्ययन करते हुए, सर्वप्रथम यह समझना महत्वपूर्ण है कि बाईबल मरे हुओ के स्थान के बारे में क्या सिखाती है।

‌‌‌इब़्रानी भाषा में, धर्मशास्त्र में जो शब्द मरे हुओ के स्थान का वर्णन करने लिए के में उपयोग किया जाता है वह “शिलो” है। इस का अर्थ ‘‘मरे हुआ का स्थान’’ या ‘‘दिवंगत आत्माओं का स्थान’’ है । नये नियम का यूनानी शब्द जो की नरक के लिए उपयोग होता है वह ‘‘अद्योलोक’’ है, यह भी ‘‘मरे हुओ के स्थान’’ के संदर्भ में है। अन्य नये नियम के वचन संकेत करते हैं कि शिलों/अद्योलोक एक अस्थाई जगह है, जहाँ आत्माओं को रखा जाता है जहाँ पर वे अंतिम पुनरूस्थान और न्याय की प्रतीक्षा करती हैं। प्रकाशित वाक्य 20:11-15 दोनो में स्पष्ट अन्तर बताता है। नरक (आग की झील) जो नाश हो गए हैं उनके लिए स्थाई और अंतिम न्याय का स्थान है। ‘‘अद्योलोक’’अस्थाई का स्थान है। इसलिए, नहीं, यीशु नरक नहीं गए क्योंकि नरक भविष्य का स्थान है, जो केवल बडे श्वेत सिहंसन के न्याय के बाद प्रभाव में आएगी (प्रकाशितवाक्य 20:11- 15)।

शिलो/अद्योलोक दो भागों का स्थान है (मत्ती 11:23, 16:18; लूका 10:15, 16:23; प्रेरितो के काम 2:27- 31), बचे हुए और खोए हुओ का वासस्थान। बचे बचे हुओ के वासस्थान को ‘‘जन्नत’’ और ‘‘इब्राहिम की गोद’’ कहा जाता था। बचे हुओ के वासस्थान और नाश हुओ के वासस्थान ‘‘गहरी खाई’’ के द्वारा अलग किए हुए है (लूका 16:26)। जब यीशु स्वर्ग में गए, उसने जन्नत में रहने वालों (विश्वासियों) को अपने साथ लिया (इफिसियों 4:8- 10)। परन्तु शिलो/अद्योलोक नाश हुए वालो का भाग में कोई परिवर्तन नही आया था। सभी अविश्वासी मृतक वहाँ जाते हैं और अपने भविष्य के अंतिम न्याय की प्रतीक्षा करते हैं । क्या यीशु शिलो/अद्योलोक में गए ? इफिसियो 4:8- 10 और 1 पतरस 3:18- 20 के अनुसार, हाँ ।

कुछ उलझन भजन 16:10- 11 जैसे अंशों से उत्पन्न हुई जिस प्रकार से वे किंग जेम्ज़ वर्ज़न में अनुवाद किए गए, ‘‘क्योंकि तू मेरे प्राण को अधोलोक में न छोड़ेगा न अपने पवित्र भक्त को सड़ने देगा.............तू मुझे जीवन का रास्ता दिखाएगा’’ । ‘‘नरक’’ इस पद का सही अनुवाद नहीं है। ‘‘कबर’’ या ‘‘शिलो’’ सही अर्थ है। यीशु ने अपने पास के चोर से कहा, ‘‘कि आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा (लूका 23:43 )। यीशु का शरीर कब़र में था; उसकी आत्मा शिलो/अद्योलोक के जन्नत गई । फिर उसने सभी धर्मी मृतकों को जन्नत से निकाला और उन्हें स्वर्ग में ले गया । दुर्भागयवंश, बहुत से बाईबल के अनुवादों में अनुवादक‌‌‌ इब़्रानी और यूनानी भाषा के ‘‘शिलो’’ ‘‘अद्योलोको’’ और ‘‘नरक’’ के लिए प्रयोग किए शब्दों के अनुवाद में एक से (समनुरूप) नहीं हैं और न ही सही (यथातथ्य) हैं।

कुछ एक का दृष्टिकोण यह है कि यीशु नरक में गए थे कि शिलो/अद्योलोक की दुख सहने वाली ओर गए और हमारे पापों के लिए और अधिक दंड उठाए। यह विचार बाईबल की शिक्षा के अनुकूल नहीं है। यह यीशु की क्रूस पर मृत्यु और उसका हमारी जगह दु:ख उठाना था जिस ने हमारे छुटकारे के लिए प्रर्याप्त प्रबन्ध कर दिया। यह उसका बहाया हुआ लहू था जिसके फलस्वरूप हमारे अपने पाप भी घुल गए (यूहा 1:7- 9) । जब वह क्रूस पर लटक हुए, उन्होने समस्त मानव जाति के पाप का बोझ अपने ऊपर ले लिया। वह हमारे लिए पाप बन गया:‘‘जो पाप से अज्ञात था, उसी को उसने हमारे लिए पाप ठहराया कि हम उस में होकर उसकी धर्मीकता बन जाएँ (2 कुरिन्थियों 5:21)। यह पाप का मढ़ जाना हमारा यीशु के गतसमनी के बाग में पाप के प्याले के साथ संघर्ष को समझने में सहायता करता है, जो क्रूस पर उस पर उंडेला जाना था।

जब यीशु क्रूस पर ज़ोर से पुकारा, ‘‘हे पिता, तूने मुझे क्यो छोड़ दिया ?’’ (मत्ती 27:46); तब उन पापों को जो उस पर डाल दिए गये तभी उस समय वह पिता से अलग कर दिया गया। जब उसने अपनी आत्मा को छोड़ दिया, उसने कहा, ‘‘हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ’’ (लूका 23:46)। उसका हमारी स्थान पर दु:ख उठाना पूरा हो गया था। उसकी आत्मा अद्योलोक की जन्नतवाली ओर चली गई थी। यीशु नरक नहीं गए। यीशु का कष्ट जिस पल वह मरे सामप्त हो गया । पाप का दाम चुका दिया गया । फिर वे अपने शरीर के पूनर्जीवित होने की और उसके उठाए जाने पर महिमा में लौटने की प्रतीक्षा में रहे । क्या यीशु नरक गए ? नहीं । क्या यीशु शिलो/अद्योलोक गए ? हाँ।

Tuesday

यीशु मसीह कौन है?

1 comments
उत्तर: यीशु मसीह कौन है? "क्या परमेश्वर का अस्तित्व है?" इस प्रश्न के विपरीत बहुत कम लोगों ने यह प्रश्न किया है कि क्या यीशु मसीह का कोई अस्तित्व था । यह सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है कि यीशु सच में एक मनुष्य था जो लगभग २००० वर्ष पहले इज़रायल में धरती पर चला-फिरा था । वाद-विवाद तब शुरू होता है जब यीशु की पूर्ण पहचान के विषय पर विचार होता है । लगभग हर एक मुख्य धर्म यह शिक्षा देता है कि यीशु एक भविष्यवक्ता, या एक अच्छा शिक्षक, या एक धार्मिक पुरुष था । समस्या यह है, बाइबल हमें बताता है कि यीशु अनन्तता में एक भविष्यवक्ता, एक अच्छे शिक्षक, या एक धार्मिक पुरुष से अधिक था ।

सी एस लुईस अपनी पुस्तक मेयर क्रिसचैनिटि (केवल मसीही धर्म) में यह लिखते हैं, "मैं यहाँ पर किसी को भी उस मूर्खता पूर्ण बात को कहने से रोकने का प्रयास कर रहा हूँ जो कि लोग अकसर उसके (यीशु मसीह) के बारे में कहते हैं : "मैं यीशु को एक महान नैतिक शिक्षक के रूप में स्वीकार करने को तैयार हूँ, परन्तु मैं उसके परमेश्वर होने का दावे को स्वीकार नहीं करता ।" यह एक वो बात है जो हमें नहीं कहनी चाहिये । एक पुरुष जो केवल एक मनुष्य था तथा उस प्रकार की बातें कहता था जैसी यीशु ने कही एक महान नैतिक शिक्षक नहीं हो सकता । या तो वो एक पागल व्यक्ति हो सकता है-उस स्तर पर जैसे कोई व्यक्ति कहे कि वो एक पका हुआ अंडा है-या फिर वो नरक का शैतान हो सकता है । आपको अपना चुनाव करना चाहिये । या तो यह व्यक्ति, जो था, और है, परमेश्वर का पुत्र है, या फिर कोई पागल या कुछ और बहुत बुरा … आप मूर्खता के लिए उसे चुप करा सकते हैं, एक राक्षस के रूप में उसपर थूक सकते हैं तथा उसे मार सकते हैं; या आप उसके चरणों में गिरकर उसे प्रभु तथा परमेश्वर कह सकते हैं । परन्तु हमें किसी भी कृपालु मूर्खता के साथ यह निर्णय नहीं लेना चाहिये कि वह एक महान शिक्षक था । उसने यह विकल्प हमारे लिये खुला नहीं छोड़ा है । उसकी ऐसी कोई मंशा नहीं थी ।"

फिर, यीशु ने कौन होने का दावा किया? बाइबल क्या कहती है कि वह कौन था? सबसे पहले , यूहन्ना १०:३० में यीशु के शब्दों की ओर देखते हैं, "मैं और पिता एक हैं ।" पहली दृष्टि में, ये परमेश्वर होने का दावे के रूप में प्रतीत नहीं होता । कैसे भी, उसके कथन पर यहूदियों की प्रतिक्रिया को देखें, "यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, कि भले काम के लिए हम तुझे पतथरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के कारण, और इसलिए कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बताता है" (यूहन्ना १०:३३) । यहूदियों ने यीशु के कथन को परमेश्वर होने का दावा समझा था । निम्नलिखित पदों में यीशु ने यहूदियों को सुधारने के लिए कभी भी यह नहीं कहा, "मैंने परमेश्वर होने का दावा नहीं किया था" । यह संकेत देता है कि यीशु यह घोषणा करते हुए कि "मैं और पिता एक है" (यूहन्ना १०:३०) सच में कह रहा था कि वो परमेश्वर है । यूहन्ना ८:५८ एक अन्य उदाहरण है । यीशु ने कहा, "मैं तुम से सच-सच कहता हूँ कि इससे पहले कि इब्राहिम उत्पन्न हुआ मैं हूँ !" फिर से, प्रतिक्रिया में यहूदियों ने पत्थर उठाकर यीशु को मारना चाहा (यूहन्ना ८:५९) । यीशु ने जो अपनी पहचान "मैं हूँ" करके दी वो पुराने नियम में परमेश्वर के नाम का प्रत्यक्ष प्रयोग था (निगर्मन ३:१४) । यहूदी फिर से यीशु को क्यों पत्थरवाह करना चाहते थे अगर उसने कुछ ऐसा नहीं कहा था जिसे वो परमेश्वर की निन्दा करना समझ रहे थे, अर्थात, परमेश्वर होने का दावा?

यूहन्ना १:१ कहता है "वचन परमेश्वर था ।" यूहन्ना १:१४ कहता है "वचन देहधारी हुआ ।" यह स्पष्टता से संकेत करता है कि यीशु ही देह रूप में परमेश्वर है थोम, जो कि शिष्य था, यीशु के संबंध में कहता है, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर" (यूहन्ना २०:२८) । यीशु ने उसे नहीं सुधारा । प्रेरित पौलुस उसका इस रूप में वर्णन करता है " ... अपने महान परमेश्वर और उद्धारकर्ता यीशु मसीह" (तीतुस २:१३) । प्रेरित पतरस भी ऐसा ही कहता है, " ... हमारे परमेश्वर और उद्धारकर्ता यीशु मसीह" (२पतरस १:१) । पिता परमेश्वर भी यीशु की पूर्ण पहचान का साक्षी है, "परन्तु पुत्र से कहता है, कि हे परमेश्वर, तेरा सिंहासन युगानुयुग रहेगा, तेरे राज्य का राजदण्ड है ।"

इसलिए, जैसा कि सी एस लुईस ने सिद्ध किया, कि यीशु को एक अच्छे शिक्षक के रूप में मानना कोई विकल्प नहीं है । यीशु ने स्पष्ट रूप से तथा अकाट्य रूप से परमेश्वर होने का दावा किया । अगर वो परमेश्वर नहीं है, तो फिर वो झूठा है, तथा इसलिए एक पैगंबर; अच्छा शिक्षक, या धार्मिक पुरुष नहीं है । निरंतर यीशु के शब्दों का व्याख्यान करने के प्रयासों में, आधुनिक विद्वान यह दावा करते हैं कि "वास्तविक ऐतिहासिक यीशु" ने वो कई बातें नहीं कहीं जो कि बाइबल उसे प्रदान करती है । परमेश्वर के वचन के साथ हम विवाद करने वाले कोन होते हैं कि यीशु ने यह कहा या नहीं कहा? एक विद्वान में, जो कि यीशु के दो हज़ार साल से अलग है, इतना अर्न्तज्ञान कैसे है सकता है कि यीशु ने यह कहा या नहीं कहा जितना कि उनमें जो उसके साथ रहे, उसकी सेवा करी तथा स्वयं यीशु से शिक्षा पाई (यूहन्ना १४:२६)?

यीशु की वास्तविक पहचान के ऊपर प्रश्न इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इस बात से क्यों फर्क पड़ता है कि यीशु परमेश्वर है या नहीं? सबसे महत्वपूर्ण कारण कि यीशु को परमेश्वर होना था वो यह है कि अगर यीशु परमेश्वर नहीं है, तो उसकी मृत्यु पूरे संसार के पापों के जुर्माने की कीमत अदा करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती थी (१यूहन्ना २:२) । केवल परमेश्वर ही ऐसा असीम जुर्माना भर सकता है (रोमियो ५:८; २कुरिन्थियों ५:२१) । यीशु को परमेश्वर होना था जिससे वो हमारा उधार चुका सकता । यीशु को मनुष्य होना था जिससे वो मर सके । केवल यीशु मसीह में विश्वास करके ही उद्धार पाया जा सकता है ! यीशु की प्रभुता ही है कि वो ही उद्धार का एकमात्र मार्ग है । यीशु की प्रभुता ही है कि उसने यह दावा नहीं किया (द्घोषणा की), "मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूँ । बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता" (यूहन्ना १४:६)

क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?

0 comments

इस प्रश्न का हमारा उत्तर केवल यह ही सुनिश्चित नहीं करेगा कि हम अपने जीवन में बाइबल और उसकी भूमिका को किस दृष्टि से देखते हैं, परन्तु अंततः वो हमारे उपर एक अनन्त प्रभाव भी डालेगा । अगर बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है, तो हमें उसे संजोए रखना चाहिए, पढ़ना चाहिए, पालन करना चाहिए तथा अंततः उसपर भरोसा करना चाहिये । अगर बाइबल परमेश्वर का वचन है तो उसको खारिज कर देना परमेश्वर को खारिज कर देना है ।

यह वास्तविकता कि परमेश्वर ने हमें बाइबल दी, हमारे प्रति उसके प्रेम की गवाही तथा उदाहरण है । "प्रकटीकरण" (प्रकाशितवाक्य) शब्द का सरल अर्थ यह है कि परमेश्वर ने मानव जाति को यह प्रकट कराया कि वह कैसा है तथा हम कैसे उसके साथ सही संबंध रख सकते हैं । यह वो बातें हैं जो हमें नहीं मालूम चलती अगर परमेश्वर दैवी विधि से हम पर बाइबल में प्रत्यक्ष नहीं करता । हालांकि बाइबल में स्वयं ईश्वर का प्रकटीकरण प्रगतिशील रूप से लगभग १५०० वर्ष से अधिक दिया गया; उसमें वो सारी बातें रहीं जिनकी परमेश्वर के बारे में जानने के लिए मनुष्य को आवश्यकता थी, जिससे कि वो उसके साथ सही संबंध बना सके । अगर बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है, तो फिर वो विश्वास, धार्मिक प्रथाओं तथा नैतिकताओं के सभी मामलों की एक निर्णायक अधिकारी हैं ।

हमें स्वयं से यह प्रश्न जरूर पूछना चाहिए कि हम कैसे जान सकते हैं कि बाइबल परमेश्वर का वचन है ना कि केवल एक अच्छी पुस्तक? बाइबल में ऐसी क्या विशेषता है जो उसे अब तक कि लिखी सारी धार्मिक पुस्तकों से अलग करती है? क्या कोई प्रमाण है कि सच में बाइबल परमेश्वर का वचन है? यह उस प्रकार के प्रश्न हैं जिनकी ओर देखना चाहिये अगर हम बाइबल के दावा को गंभीरतापूर्वक निरीक्षण करना चाहते हैं कि बाइबल ही परमेश्वर का सत्य वचन है, ईश्वरीय शक्ति से प्रेरित, तथा विश्वास और संस्कार के संबंध में पूर्ण रूप से पर्याप्त ।
इस वास्तविकता के विषय में कोई संदेह नहीं हो सकता कि बाइबल परमेश्वर ही का वचन होने का दावा करती है । यह स्पष्ट रूप से इन पदों में दिखाई देता है जैसे २तिमुथियुस ३:१५-१७ जो कहता है, "… और बालकपन से पवित्र शास्त्र तेरा जाना हुआ है, जो तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बना सकता है । हर एक पवित्रशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिए लाभदायक है । ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिए तत्पर हो जाए ।"

इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए हमें दोनों, भीतरी तथा बाहरी गवाहियों की ओर निश्चित रूप से देखना चाहिये कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । अन्दरूनी गवाहियाँ स्वयं बाइबल के अंदर की वो बातें हैं जो उसके ईश्वरीय मूल की गवाही देती है । बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है के लिए पहली भीतरी गवाहियों में से एक उसके एकत्व में देखा जाता है । हाँलाकि यह वास्तव में छियासठ पुस्तकें हैं, जो तीन महाद्वीपों में लिखीं हैं, तीन भिन्न भाषाओं में, लगभग १५०० वर्षों से अधिक तथा ४० लेखकों से अधिक के द्वारा (जो कि जीवन के विभिन्न पेशों में से आए थे), लेकिन बाइबल आरंभ से समाप्ति तक बिना किसी विरोध के एक सी ही बनी रही है । यह एकत्व और अन्य पुस्तकों से बेजोड़ है तथा शब्दों के ईश्वरीय मूल का प्रमाण है, कि परमेश्वर ने इन्सानों को इस प्रकार से अभिप्रेरित करा कि उन्होंने उसके ही शब्द अभिलिखित किये ।
एक अन्य भीतरी गवाही जो संकेत देती है कि सच में बाइबल परमेश्वर का वचन है उन विस्तृत भविष्यवाणियों में देखा जाता है जो कि उसके पन्नों के भीतर हैं । बाइबल में सैकड़ों भविष्यवाणियाँ हैं जो कि इज़रायल समेत एकल देशों के भविष्य, कुछ नगरों के भविष्य, मानव-जाति के भविष्य, और उसके आने के लिये जो मसीहा होगा, केवल इज़राइल का ही उद्वारकर्ता नहीं अपितु उन सब का जो उसपर विश्वास करते हैं, से संबंधित है । अन्य धार्मिक पुस्तकों की भविष्यवाणियों से या जो नास्त्रेदेमुस के द्वारा की गईं, उनके विपरीत, बाइबल की भविष्यवाणियाँ अत्यंत विस्तृत है तथा कभी गलत (असत्य) नहीं पाई गई। केवल पुराने नियम में ही यीशु मसीह से संबंधित तीन सौ से भी अधिक भविष्यवाणियॉ हैं । ना केवल इस बात का पूर्वकथन किया गया था कि वो कहां जन्मेगा तथा किस परिवार से आयेगा, परन्तु यह भी कि वह कैसे मरेगा तथा तीसरे दिन फिर से जी उठेगा । बाइबल में पूरी हुई भविष्यवाणियों को ईश्वरीय मूल के द्वारा समझाने के अतिरिक्त और कोई तार्किक तरीका है ही नहीं । किसी अन्य धार्मिक पुस्तक में इस सीमा या प्रकार की भविष्यवाणी नहीं है जो कि बाइबल में हैं ।

बाइबल के ईश्वरीय मूल का होने की एक तीसरी गवाही उसके बेजोड़ अधिकार तथा शक्ति में है । हाँलाकि, यह गवाही पहली दो भीतरी गवाहियों से अधिक व्यक्तिगत है, परन्तु यह बाइबल के ईश्वरीय मूल के होने की शक्तिशाली प्रमाणों से कम नहीं है । बाइबल में एक बेजोड़ अधिकार (क्षमता) है जो अब तक लिखी गई किसी भी पुस्तक में नहीं है । इस अधिकार तथा शक्ति को सर्वोत्तम रूप में इस प्रकार देखा जाता है कि किस तरह से बाइबल का अध्ययन करने से अनगिनत लोग परिवर्तित हुए । नशीली दवाओं के व्यसनी इसके द्वारा चंगे हो गए, समलैंगिक व्यक्ति इसके द्वारा मुक्त हुए, बहिष्कृत तथा कंगाल लोग इसके द्वारा रूपांतरित किये गए, कड़े अपराधी इसके द्वारा सुधारे गए, पापी इसके द्वारा फटकारे गए, तथा घृणा इसको पढ़ने के द्वारा प्रेम में बदल गई । बाइबल में निश्चय ही एक ओजस्वी तथा रूपांतरण की शक्ति है जो कि केवल तब ही संभव है क्योंकि यह सच में परमेश्वर का वचन है ।
बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है कि भीतरी गवाहियों के अतिरिक्त बाह्य गवाहियाँ भी है जो इस बात का संकेत देती है कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । उन में से एक गवाही बाइबल की ऐतिहासिकता है । क्योंकि बाइबल ऐतिहासिक घटनाओं का ब्योरा देती है इसलिए उसकी सत्यता तथा यर्थातता किसी अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों की तरह सत्यापन के अधीन है । पुरातात्विक प्रमाणों तथा अन्य लिखित दस्तावेज़ों, दोनों के द्वारा, बाइबल के ऐतिहासिक वृतांतों को समय-समय पर सत्य तथा सही होने के लिए प्रमाणित किया जाता रहा है । सत्य तो यह है कि बाइबल के समर्थन में सारे पुरातत्विक तथा हस्तलिखित प्रमाणों ने उसे पुरातन संसार की सर्वश्रेष्ठ दस्तावेजों से सिद्ध करी हुई पुस्तक बना दिया है । यह सत्य कि बाइबल ऐतिहासिक रूप से सत्यापित घटनाओं का सही तथा सत्यता से ब्यौरा रखती है उसकी सत्यता का एक बड़ा संकेत है जब धार्मिक विषयो तथा सिद्धांतों पर विचार किया जाता है तथा उसके दावे को प्रमाणित करने में सहायक है कि बाइबल ही परमेश्वर का वचन है ।

अन्य बाह्य गवाहियों कि बाइबल ही सच में परमेश्वर का वचन है, वो है उसके मानव लेखकों की निष्ठा । जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, परमेश्वर ने हम तक अपने वचनों को अभिलिखित करने के लिए जीवन के विभिन्न पेशों से आये हुए मनुष्यों का उपयोग किया । इन मनुष्यों की जीवनियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस बात पर विश्वास करने का कोई भी ऐसा अच्छा कारण नहीं है कि वो ईमानदार तथा निष्ठावान नहीं थे । उनकी जीवनियों का निरीक्षण करते हुए तथा वो वास्तविकता कि जिस लक्ष्य पर वो भरोसा करते थे उसके लिए जान देने को भी तत्पर थे (प्रायः यंत्रणादायक मृत्यु), यह जल्दी ही स्पष्ट हो जाता है ये साधारण मगर ईमानदार मनुष्य सच में विश्वास करते थे कि परमेश्वर ने उनसे बातें करी है । जिन मनुष्यों ने नया नियम लिखा तथा कई अन्य सैकड़ों विश्वासी (१कुरिन्थियों १५:६) अपने संदेश के सत्य को जानते थे क्योंकि उन्होने यीशु मसीह को देखा तथा समय व्यतीत किया उसके मुर्दों में से जी उठने के पश्चात । जी उठे हुए मसीह को देखने के रूपांतरण का इन मनुष्यों पर जबरदस्त असर पड़ा । वे डर कर छिपने की जगह उस संदेश के लिए मरने को तैयार थे जो परमेश्वर ने उनपर प्रकट किया ।
उनके जीवन तथा मृत्यु इस सत्य को प्रमाणित करते है कि बाइबल सच में ही परमेश्वर का वचन है

एक अंतिम बाह्य गवाहियों कि बाइबल ही सच में परमेश्वर का वचन है वो है बाइबल का नष्ट ना हो पाना । उसके महत्व तथा पूर्णतया परमेश्वर के वचन के दावे के कारण, बाइबल ने इतिहास में किसी अन्य पुस्तक से बहुत अधिक बुरे आक्रमण तथा उसको नष्ट करने के प्रयास झेलें हैं । आरंभिक काल के रोमी सम्राटों जैसे डायोसीश्यिन से लेकर साम्यवादी तानाशाहों तथा आज के आधुनिक समय के नास्तिकों और अज्ञेयवादियों तक, बाइबल ने अपने सभी अक्रमणकारियों को झेला है तथा टिकने नहीं दिया तथा आज भी वो सारे संसार में सर्वाधिक प्रकाशित होने वाली पुस्तक है ।

सदा से, संशयवादियों ने बाइबल को काल्पनिक रूप में माना है, परन्तु पुरातत्व ने उसे ऐतिहासिक रूप में स्थापित किया है । विरोधियों ने उसकी शिक्षाओं को पुरातन तथा आदिकालीन कहकर आक्रमण किया, परन्तु उसकी नैतिक तथा विधिक धारणाएँ तथा शिक्षाओं ने सारे संसार में समाजों तथा संस्कृतियों पर अपना सकारात्मक प्रभाव छोड़ा है । विज्ञान, मनोविज्ञान तथा राजनीतिक आंदोलनों के द्वारा आज भी उसपर आक्रमण जारी है परन्तु अभी तक वो वैसी ही प्रामाणिक तथा प्रासंगिक जैसे कि पहले जब वो लिखी गई थी । यह वो पुस्तक है जिसने बीते २००० वर्षों में अनगिनत जिंदगियों तथा संस्कृतियों को परिवर्तित कर डाला है । इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कैसे इसके विरोधी इसपर आक्रमण करने, इसको नष्ट करने, या इसको कलंकित करने का प्रयास करते हैं, परन्तु इन आक्रमणों के बाद भी बाइबल उतनी शक्तिशाली, उतनी ही सत्य तथा उतनी ही प्रासंगिक है जैसे वो पहले थी । उसकी शुद्धता जो आज तक सुरक्षित रखी गई है, उसको बदनाम करने, उसपर आक्रमण करने या उसको बरबाद करने के प्रयासों के बावजूद भी, इस सत्य का स्पष्ट प्रमाण है कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । हमें इस बात पर चकित नहीं होना चाहिये कि चाहें कैसे भी बाइबल पर आक्रमण किया गया हो, वो हमेशा अपरिवर्तित तथा सही-सलामत निकल आती है । आखिरकार यीशु ने कहा था, "आकाश और पृथ्वी टल जायेंगे, पर मेरी बातें कभी न टलेंगी" (मरकुस १३:३१) इस प्रमाण को देखने के बाद कोई भी संदेह के कह सकता है कि, "हाँ बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है ।